
साहित्य और पर्यावरण का गहरा नाता, जनपक्षधर होना जरूरी : राष्ट्रीय वेबिनार में विद्वानों ने रखे विचार
(रिपोर्ट विरेंद्र प्रताप उपाध्याय)
वाराणसी। भारतीय साहित्य में समाज और पर्यावरण के प्रति गहरी संवेदनशीलता हमेशा से विद्यमान रही है। प्राचीन ग्रंथों से लेकर आधुनिक कृतियों तक रचनाकारों ने इन सरोकारों को विविध रूपों में अभिव्यक्त किया है। साहित्य और पर्यावरण जनपक्षधर हों, इसी सोच के साथ शुक्रवार को प्रोफेसर बी.एन. जुयाल एजुकेशनल फाउंडेशन ट्रस्ट की ओर से एक राष्ट्रीय वेबिनार का आयोजन किया गया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता ट्रस्ट अध्यक्ष शिक्षाविद् डॉ. अंबिका प्रसाद गौड़ ने की। उन्होंने प्रतिभागियों का स्वागत करते हुए संस्था की गतिविधियों और उद्देश्यों पर प्रकाश डाला। वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार डॉ. अत्रि भारद्वाज ने विषय प्रवर्तन में कहा कि मनुष्य का वास्तविक विकास साहित्य और पर्यावरण की समझ से ही संभव है।
प्रो. श्रद्धानंद ने वेद, उपनिषद और पुराणों में पर्यावरण संरक्षण से जुड़े प्रसंगों की चर्चा करते हुए कहा कि इन ग्रंथों में प्रकृति को देवत्व का दर्जा दिया गया है। समीक्षक डॉ. रामसुधार सिंह ने कहा कि भारतीय साहित्य सामाजिक समरसता, अहिंसा और सहिष्णुता जैसे मूल्यों को मजबूती देता आया है।
मुंबई से जुड़े सिने इतिहासवेत्ता डॉ. राजीव श्रीवास्तव ने कहा कि आधुनिक साहित्य में प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण को लेकर गंभीर चिंताएं व्यक्त की गई हैं। कवयित्री प्रोफेसर रचना शर्मा ने कहा कि साहित्य समाज और पर्यावरण के जटिल संबंधों को समझने का सशक्त माध्यम है।
साहित्यकार डॉ. मुक्ता ने कहा कि भारत आर्थिक प्रगति की दिशा में बढ़ रहा है लेकिन पर्यावरणीय सरोकार पीछे छूटते जा रहे हैं। देहरादून से जुड़े प्रोफेसर रामविनय सिंह ने चेताया कि पर्यावरण असंतुलन से वैश्विक तापन में तेजी से वृद्धि हो रही है।
धन्यवाद ज्ञापन साहित्यकार डॉ. देवेंद्र कुमार सिंह ने किया। उन्होंने कहा कि पर्यावरण असंतुलन के चलते कई पशु-पक्षियों की प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं। कार्यक्रम का संचालन श्री अरुण मिश्रा ने किया।