
जप या पाठ करने से आत्मा की शुद्धि होती है और हवन करने से संपदा की प्राप्ति होती है – डॉक्टर नरेंद्र नाथ व्यास
प्रयागराज: देवी पुराण 126/3-4 में कहा है कि जपेन चात्मनः शुद्धिरग्निकार्येण संपदा,अर्थात जप से आत्म शुद्धि और होम से संपदा की प्राप्ति होती है,वही 126/ 24 में निर्दिष्ट है कि बहुत से हव्य,ईंधन,सुंदर समिधा से युक्त में प्रज्वलित अग्नि की लपट में जो धुएं से रहित होम करने से अभीष्ट की सिद्धि होती है।
दिनांक 8 सितंबर 2024 से 12 सितंबर 2024 तक शिव शक्ति धाम हलोली पालघर महाराष्ट्र में लोक कल्याण हेतु शतचंडी महायज्ञ का आयोजन किया गया,मुख्य रूप से आचार्य पंकज जी महाराज ने यज्ञ में प्रतिदिन सुबह शाम पूजन आरती में भाग लिया एवं भंडारे का भी आयोजन किया गया।
यज्ञ में प्रयाग से पधारे विज्ञानों के द्वारा पूजन और दुर्गा सप्तशती के अंगों सहित पाठ आदि के उपरांत दिनांक 12 सितंबर को 10 पाठ से हवन करके पूर्णाहुति की गई,इस अवसर पर आचार्य पंकज महाराज ने जप, पाठ और हवन के महत्व को पृथक रूप से स्पष्ट किया।
अंगों के सहित दुर्गा सप्तशती पाठ के विषय में महाराज जी ने बताया कि 12 ही तंत्र में कहा गया है पहले अर्गला फिर और फिर कब्ज का पाठ करना चाहिए परंतु योग रत्नावली में निर्देश है कि
कवचंबीजमादिष्टमर्गलाशक्तिरूच्यते।
कीलकं कीलकं प्राहुः सप्तशत्या महामुनेः।
मत्स्य सूक्त के अनुसार अर्गला पापों का नाश करती है, कीलक फल प्रदान करता है, तथा कवच नित्य रक्षा करता है।
यज्ञ में अंतिम दिन हवन के समय विशिष्ट मित्रों द्वारा निर्दिष्ट विशिष्ट सामग्री यथा नींबू मधु घृत काली मिर्च लौंन्ग बेल का फल द्राक्षा खजूर पालक और चौलाई तथा खीर पूआ लाल चंदन का चूर्ण और अनार के फल से विशिष्ट आहुति प्रदान की गई,श्री दुर्गा सप्तशती अर्थात मां का चरित श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से पूर्व अगला स्तोत्र का पाठ कर लेने से बाह्य विषयों के द्वारा जो चित्त में उद्विग्नता आती है वह समाप्त हो जाती है।
कीलक स्तोत्र का पाठ करने से चण्डी तत्व को समझने की योग्यता मिलती है,तथा कवच स्तोत्र का पाठ करने से शरीर मन और प्राण को मां भगवती चेतना द्वारा समुचित रूप से उद्बुद्ध और रूपांतरित कर जो दिव्य जीवन मिल सकता है।
इसका स्पष्ट संकेत देती हैं,इसी तरह रात्रि सूक्त का पाठ करने से ऋण से मुक्ति मिलती है तथा अज्ञान का नाश होता है,दुर्गा सप्तशती के पहले चरित्र में वर्णित घटना प्रायः प्रलय काल की समाप्ति के समय और नवीन सृष्टि के पूर्व में घटित हुई है,ब्रह्मा जी ने मधु कैटभ के नाश के लिए श्री महाकाली की स्तुति की थी,यही देवी दशमुख 10 हाथ और 10 पैर वाली हैं,भीषण रूप वाली होते हुए भी रूप सौभाग्य और कान्ति तथा महती श्री की प्रतिष्ठा रुपिणी है।
सप्तशती का माध्यम चरित्र – श्री दुर्गा सप्तशती के मध्यम चरित्र में वर्णित घटना पहले स्वायंभुव मन्वन्तर में घटित हुई थी और मेधस ऋषि ने दूसरे स्वारोचिष मन्वन्तर में राजा सुरथ को यह घटना सुनाई थी,इसी तरह देवताओं के सम्मिलित तेज से भगवती महालक्ष्मी का प्राकट्य हुआ,विष्णु के तेज से उनकी 18 भुजाएं हैं,परन्तु युद्ध काल में वे सहस्र भुज भी हो जाती हैं,श्री दुर्गा सप्तशती का उत्तम चरित्र में वर्णित घटना दूसरे मन्वन्तर अर्थात स्वारोचिष मन्वंतर में घटित हुई थी।
इसमें भगवती के तुरीय स्वरूप की अर्थात् परमात्म स्वरुप की स्तुति हुई है,इसलिए इस चरित्र को उत्तर चरित्र कहते हैं,पार्वती गौरी जी के शरीर से निकली कौशिकी देवी जिन्होंने शुंभ निशुंभ का नाश किया था,यही महा सरस्वती हैं,देवी भागवत के अनुसार महिषासुर का संहार कर देवताओं की पूजा स्वीकार करने के बाद भगवती महालक्ष्मी अपने धाम मणिद्वीप को चली गई,फिर देवताओं के उपकार के लिए तथा दुष्ट दैत्य यों के विनाश के लिए गोरी से देहधारण कर प्रकट हुई।
इसी तरह यज्ञ में आहुति के समय स्वाहा और स्वधा का अर्थ बताते हुए आचार्य पंकज महराज कहा कि स्वाहा का शाब्दिक अर्थ होता है सु+आह अर्थात अच्छी तरह से क्या हुआ या सुभाषित,सवाहा धुंए की देवी और अग्नि की पत्नी भी है तथा दक्ष प्रजापति की पुत्री,दुर्गा सप्तशती में आया है कि यस्या समस्त सुरता समुदीरणेन तृप्तिंप्रयासु सकलेसु मखेषु देवी स्वाहासि वो।
अर्थात हे देवी सभी यज्ञों में स्वाहा का ठीक से उच्चारण करने पर सभी देवताओं की तृप्ति होती है,अतः तुम देव पोषिणी स्वाहा हो,इसी तरह श्रद्धा का अर्थ स्वयं का स्वभाव निश्चय सहजता स्वयं की प्रसन्नता साहस तथा पितरों का भोजन होता है,दुर्गा सप्तशती के अनुसार स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृक्तिहेतुरूच्चार्यसे त्वमसि एवं जनैः स्वधा च।
अर्थात पितरों की तृप्ति हेतु स्वधा तुम्हीं हो,कात्यानी तंत्र में कहा गया है जिस प्रकार अंगों से हीन होने पर शरीर धारी प्राणी काम करने में समर्थ नहीं होता है। उसी प्रकार 6 अंगों से रहित सप्तशती स्तोत्र फल नहीं देता,इसलिए अंगों का पाठ करके ही श्रेष्ठ सरस्वती का पाठ करना चाहिए।
उदाहरण के लिए रावण आदि मी इस स्तोत्र का पाठ बिना अंगों के किया था जिसके परिणाम स्वरुप उनकी पराजय हुई,सप्तशती के छह अंग हैं कवच अर्गला कीलक और तीनों रहस्य प्राधानिक रहस्य वैकृतिक और मूर्ति रहस्य। मरीच कल्प में रात्रि सूक्त देवी सूक्त को भी सप्तशती के अंग में जोड़ दिया गया है,चिदंबर संहिता में नवार्ण से पुटित कर स्तोत्र को मध्य में रखकर सदा अभ्यास करें ऐसा लिखा गया है,100 बार आदि में और सौ बार अंत में नवार्ण मंत्र का जाप कर बीच में सप्तशती चंडी का पाठ या जप करें इस प्रकार छ अंगों के अतिरिक्त देवी सूक्तम,रात्रिसूक्त,नवार्ण और प्रणव यह भी पाठ के अंग हैं,उचित पाठ्यक्रम का चुनाव करना कठिन हो जाता है।
परंतु सद्गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता अनुसार उपयोग करना चाहिए,श्री दुर्गा सप्तशती अर्थात मां का चरित पर प्रकाश डालते हुए शिव शक्ति धाम हालोली के पीठाधीश्वर आचार्य पंकज जी महाराज ने कहा कि श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से पूर्व अगला स्तोत्र का पाठ कर लेने से बाह्य विषयों के द्वारा जो चित्त में उद्विग्नता आती है वह समाप्त हो जाती है,कीलक स्तोत्र का पाठ करने से चण्डी तत्व को समझने की योग्यता मिलती है।
तथा कवच स्तोत्र का पाठ करने से शरीर मन और प्राण को मां भगवती चेतना द्वारा समुचित रूप से उद्बुद्ध और रूपांतरित कर जो दिव्य जीवन मिल सकता है इसका स्पष्ट संकेत देती हैं,इसी तरह रात्रि सूक्त का पाठ करने से ऋण से मुक्ति मिलती है तथा अज्ञान का नाश होता है,शतचंडी यज्ञ एवं पाठ के आयोजन में राजेंद्र प्रसाद घुवालेवाला तथा क्षेत्रीय गणमान्य लोग उपस्थित रहे।