
सड़क सुरक्षा के दो नन्हें ब्रांड एम्बेसडर: बड़ों को सिखा रहे जीवन की कीमत
जौनपुर: जहां एक ओर देशभर में सड़क हादसों की संख्या कम होने की बजाय बढ़ती जा रही है, वहीं जौनपुर जिले के दो मासूम बच्चों ने हेलमेट पहनने को लेकर समाज को आईना दिखा दिया है। 15 से 20 वर्ष की उम्र में जहां अधिकांश युवक बाइक पर बैठते वक्त हेलमेट को बोझ समझते हैं और बड़े-बुजुर्गों की बात को भी नजरअंदाज कर देते हैं, वहीं ये दो छोटे बच्चे बिना हेलमेट लगाए बाइक पर चढ़ते ही नहीं।
इन बच्चों के लिए हेलमेट सिर्फ एक सुरक्षा उपकरण नहीं, बल्कि उनके लिए यह गर्व और जिम्मेदारी की निशानी है। वो जब हेलमेट पहनते हैं, तो उनके चेहरे पर आत्मविश्वास और संतोष झलकता है—जैसे वो अपने जीवन और अपने परिवार की चिंता करते हैं।
विडंबना यह है कि 40 से 50 साल की उम्र में लोग अब भी हेलमेट को “झंझट” मानते हैं। वहीं भारत सरकार के सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय का लक्ष्य था कि वर्ष 2024 के अंत तक सड़क दुर्घटनाओं और उससे होने वाली मौतों को आधा किया जाएगा, लेकिन वास्तविकता इससे उलट है। एक्सीडेंट कम नहीं हुए, बल्कि आंकड़े और भयावह हो गए।
स्वीडन जैसे देशों ने दिखा दिया है कि इच्छाशक्ति और जनसहभागिता से क्या कुछ संभव है—वहां पिछले 11 वर्षों में एक भी मौत सड़क हादसे से नहीं हुई। वहीं दूसरी ओर हमारा जौनपुर जिला है, जहां आज के अखबार में ही सड़क दुर्घटनाओं में नौ मौतों की खबर है।
यह केवल सरकारी नीतियों या अभियानों की असफलता की कहानी नहीं, बल्कि समाज की सोच और प्राथमिकताओं का भी कड़वा सच है। यहां जाति और धर्म जैसे मुद्दों में उलझी जनता को सड़क सुरक्षा जैसे विषयों से कोई सरोकार नहीं। और नेता—वो भी इन्हीं मुद्दों पर टिके रहते हैं, क्योंकि बिना इन पर चर्चा के सत्ता का रास्ता ही नहीं खुलता।
बाकी सारे मुद्दे—सड़क सुरक्षा हो या पर्यावरण, महिला सशक्तिकरण हो या रोजगार—बस राज्य लोक सेवा आयोग और संघ लोक सेवा आयोग के निबंधों और साक्षात्कारों तक सीमित रह गए हैं।
लेकिन इन दो मासूम बच्चों की जागरूकता हमें सिखाती है कि बदलाव किसी बड़े आंदोलन से नहीं, बल्कि छोटी-छोटी आदतों से आता है। शायद यही बच्चे हमारे कल के असली नेता और समाज सुधारक हों—जो शब्दों से नहीं, अपने आचरण से समाज को दिशा दें।